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होने दो सागर का मंथन
विष निकलेगा-
यह भय क्यों हो
क्यों हो क्रंदन-
पाना तुमको
यदि अमृत है
मंथन तो करना ही होगा
छोड़ रहे क्यों मध्य मार्ग में
यात्रा को पूरा करना है
थकित रहे तन
तो क्या डर है
मन तो थका नहीं करता है
उठो करो तुम शक़्ति प्रदर्शन
होने दो सागर का मंथन
जीवन का जो रिक़्त भाग है
उसको ले उद्वेलित तुम क्यों
बढ़े चलो तुम, बढ़े चलो तुम
करना है विराट अभिनंदन
होने दो तुम सागर मंथन
देखो तुम मत घबराना
मृत्यु नाम नवजीवन का है
लक्ष्य हेतु तुम गले लगाना
करो महा शोर्य का वंदन
होने दो यह सागर मंथन
मंथन को देखो, मत रोको
वक्षस्थल, सागर का चीरो
अमृतपुत्र बनो तुम वीरों
लक्ष्मी से होगा तब वंदन
होने दो यह सागर मंथन...



नरेन्द्र मोहन

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  1. खूबसूरत रचना । बधाई

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  2. बहुत सुन्दर रचना ,धन्यवाद , जय श्री कृष्ण

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