मैं तेरे नाम का अब भी दीया जलाती हूँ
क्या तुम्हें मैं भी उतनी ही याद आती हूँ
बस नज़र की छुअन थी भावना का बंधन था
ऐसा बंधन था जिसमें आसमान सा मन था
मन में सपने थे परिंदों की तरह उड़ते थे
हौसले मेघ बन के हर घड़ी घुमड़ते थे
तुम्हें छू कर हवा का झोंका जब भी आता था
मोर की तरह रोम-रोम झूम जाता था
अब तलक मैं उसी बारिश में भीग जाती हूँ
क्या तुम्हें मैं भी उतनी ही याद आती हूँ
तेरे अहसास मेरे, बन के चहचहाते थे
हर सुबह अपनी मधुर धुन से वे जगाते थे
दिन की बगिया में खिला करते सुमन पल-पल में
खुशबू वो ही महकती थी मेरे आंचल में
मेरी नींदों में रोज़ ख्वाब मुस्कुराता था
वो जगाता कभी तो प्यार से सुलाता था
अब भी उस ख्वाब का काजल में नित लगाती हूँ
क्या तुम्हें मैं भी उतनी ही याद आती हूँ
मैंने यादों को तेरी मरहम बनाया है
उन्हें ज़ख्मों में बड़े प्यार से लगाया है
यूं यहां की तो हवा तक उदास रहती है
हौसला बन के तेरी याद पास रहती है
गीत मौसम के बुलबुल भी नहीं गाती अब
मेरे अधरों पे ऐसी तान छेड़ जाती अब
बन के मीरा तेरी बस तेरे गीत गाती हूँ
क्या तुम्हें मैं भी उतनी ही याद आती हूँ...
-ऋतु गोयल
pyar ke alawa kuchh vi nahi dikha aapke nazma me .........bahut sundar rachna
ReplyDeleteआभार ऋतु जी की इस रचना को प्रस्तुत करने का.
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