नया रूप गढ़ना है उजडे वतन का|
पहाडो का दामन न छुए पडोसी,
सुलह कर न गर्दन दबाये सपन का|
सजाले पुजारी हृदय की उषा को,
धरा यह रवानी की बू मांगती है,
कलम लेखको से लहू मांगती है|
वतन के लिये ही कलम जन्मती,
समर्पण वतन के लिये जानती है|
वतन के बिना शब्द रहते अधूरे,
वतन को कलम ज़िन्दगी मानती है|
हवन हो रहा है युगों से वतन पर,
वतन की चिता ज़िन्दगी मांगती है|
कलम लेखकों से लहू मांगती है|
कलम क्रांति का कर रही है आमंत्रण,
कलम शांति का कर रही है निमंत्रण|
कलम काल का भाल रंगने चली है|
चली है दमन पर अमन का ले चित्रण|
कलम सर कलम कातिलो का करेगी,
कलम की सिखा आबरू मांगती है|
कलम लेखको से लहू मांगती है|
क्षितिज लाल पूरब का करती कलम ही,
कुहासे की धूमिल घटाएँ हटा कर|
विषम काल से जूझती है मगर अब,
शहादत की वेदी पे खू मांगती है|
कलम लेखको से लहू मांगती है|
''यायावर''
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